नक कट्टी रानी - Rani Karnavati


भारतीय इतिहास अदम्य साहस की गाथाओं से भरा हुआ है। परंतु इनमें से कुछ कहानियां के बारे में तो हम जानते हैं, जबकि कई कहानियां ऐसी भी रही जो यूं ही इतिहास के पन्नों में दबी रह गयी। खासकर महिलाओं की वीरता की बात आती है, तो हमें रानी लक्ष्मी बाई, अहिल्या बाई जैसे कुछ गिने-चुने नाम ही याद आते हैं।


यदि हम इतिहास के पन्ने पलटकर देखेंगे तो कई ऐसी बहादुर महिलाएं की कहानी पाएंगे, जिन्होंने न केवल वीरता के साथ अपनी लड़ाई लड़ी बल्कि कुछ अद्भुत कारनामे भी कर दिखाये। इन्हीं में से एक बहादुर वीरंगना थीं, गढ़वाल राज्य की रानी कर्णावती। असल में इन्हें मुगलों की नाक काटने के लिए जाना जाता है।




गढ़वाल की रानी कर्णावती:


भारतीय इतिहास में जब रानी कर्णावती का जिक्र आता है तो फिर मेवाड़ की उस रानी की चर्चा होती है जिसने मुगल बादशाह हुमांयूं के लिये राखी भेजी थी। इसलिए रानी कर्णावती का नाम रक्षाबंधन से अक्सर जोड़ दिया जाता है।


लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि इसके कई दशकों बाद भारत में एक और रानी कर्णावती हुई थी और यह गढ़वाल की रानी थी।इस रानी ने मुगलों की बाकायदा नाक कटवायी थी और इसलिए कुछ इतिहासकारों ने उनका जिक्र नाक कटी रानी या नाक काटने वाली रानी के रूप में किया है।


शाहजहां के कार्यकाल पर बादशाहनामा लिखने वाले अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपनी पुस्तक में गढ़वाल की इस रानी का जिक्र किया है। यहां तक कि नवाब शम्सुद्दौला खान ने ‘मासिर अल उमरा’ में उनका जिक्र किया है। इटली के लेखक निकोलाओ मानुची जब सत्रहवीं सदी में भारत आये थे तब उन्होंने शाहजहां के पुत्र औरंगजेब के समय मुगल दरबार में काम किया था।उन्होंने अपनी किताब ‘स्टोरिया डो मोगोर’ यानि ‘मुगल इंडिया’ में गढ़वाल की एक रानी के बारे में बताया है जिसने मुगल सैनिकों की नाट काटी थी। माना जाता है कि स्टोरिया डो मोगोर 1653 से 1708 के बीच लिखी गयी थी जबकि मुगलों ने 1640 के आसपास गढ़वाल पर हमला किया था। गढ़वाल के कुछ इतिहासकारों ने हालांकि पवांर वंश के राजाओं के कार्यों पर ही ज्यादा गौर किया और रानी कर्णावती के पराक्रम का जिक्र करना उचित नहीं समझा।




रानी कर्णावती गढ़वाल के राजा महिपत शाह की पत्नी थी तथा पृथ्वी शाह की माँ थी। महिपत शाह, श्याम शाह चाचा थे। श्याम शाह की मृत्यु के बाद उनके चाचा महिपत शाह में गढ़ राज्य की राज गद्दी संभाली। महिपत शाह एक पराक्रमी और निडर राजा थे। इन्होंने ही अपने शासनकाल में तिब्बत पर तीन बार आक्रमण किया था। इन्हें गर्वभंजन के उप नाम जाना जाता था। इनकी सेना में वीर माधो सिंह भंडारी जैसे सेनापति भी थे जिन्होंने रानी कर्णावती को भी अपनी सेवाएं दी।


यह भारत का वो दुर्भाग्यपूर्ण समय था जब देश पर मुगलों का शासन हुआ करता था और संपूर्ण राष्ट्र में मुगल अपने अत्याचार से लोगों को परेशान कर रहे थे। परंतु गढ़वाल के राजा महीपति शाह जैसे कुछ लोग भी थे जिन्होंने मुगलों की आंखों में आंख डालकर कहा था कि हम आपके शासन को स्वीकार नहीं करते।



दरअसल 1628 ई. में मुगल वंश की गद्दी पर शाहजहां बैठे शाहजहां ने राजतिलक के समारोह में उस समय के सभी राज्यों के राजाओं को बुलाया था और इसी दौरान गढ़वाल के तत्कालीन राजा महीपति शाह को भी आमंत्रण भेजा गया। परंतु महीपति शाह ने निमंत्रण को स्वीकार कर दिया। इसके दो कारण माने जाते हैं। पहला यह कि पहाड़ से आगरा तक जाना तब आसान नहीं था और दूसरा यह एक तरह से मुगल वंश के आधिपत्य को स्वीकारना था और उन्हें मुगल शासन की अधीनता स्वीकार नहीं थी।


कहा जाता है कि शाहजहां इससे चिढ़ गया था। इसके अलावा किसी ने मुगल शासकों को बताया कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदानें हैं। इस बीच महिपतशाह और उनके वीर सेनापति रिखोला लोदी और माधोसिंह भी नहीं रहे।


महीपति शाह एक योद्धा थे और वह अपने राज्य का विस्तार करने के लिए हमेशा यु्द्ध लड़ते रहते थे। परंतु 1631 ई. में पड़ोसी राज्य कुमाऊं से एक यु्द्ध में लड़ाई के दौरान महीपति शाह की मृत्यु हो जाती है और गद्दी पर उनके 7 वर्ष के बेटे पृथ्वीपतिशाह को बैठा दिया जाता है।






रानी ने मुगलों की नाक क्यों काटी?


महिपत शाह की मृत्यु के बाद रानी कर्णावती के पुत्र पृथ्वी शाह गद्दी पर बैठेपृथ्वी शाह उस समय महज 7 साल के थे, यही कारण है उनकी अल्प आयु के कारण राज्य का संरक्षण रानी कर्णावती की देखरेख पर हुआ। रानी कर्णावती ने ना सिर्फ राज्य का शासन चलाया बल्कि अपने पुत्र पृथ्वी शाह को भी एक महान राजा बनने के सारे संस्कार दिए।


शाहजहां ने इसका फायदा उठाकर गढ़वाल पर आक्रमण करने का फैसला किया। 1635 में उसने अपने सेनापति नजाबत खान को गढ़वाल पर आक्रमण के लिए भेजा। 30 हज़ार सैनिकों को लेकर नजाबत खान ने गंगा नदी पार की और देहरादून के समीप रायवाला नामक जगह पर अपने खेमे गाड़ दिए। इसके बाद रानी कर्णावती तक मुगल बादशाह का संदेश भेजा गया और कहा गया कि या तो वो 10 लाख रुपए दे दें या फिर एक बड़े आक्रमण के लिए तैयार रहें। रानी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।



इससे क्रोधित होकर मुगल सेनापति नजाबत खान ने फ़ौज को लेकर श्रीनगर की तरफ बढ़ना शुरू किया। मुग़ल सेना गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर की तरफ बढ़ने लगी, परंतु जैसे-जैसे शिवालिक की तलहटी से ऊपर पहाड़ों की तरफ चढ़ना शुरू किया, उसका सामना छापामार गुरिल्ला पद्धति से लड़ने वाली रानी की सेना से हुआ। इस आक्रमण ने मुग़ल सेना की नाक में दम कर दिया। लेकिन जब वे वर्तमान समय के लक्ष्मणझूला से आगे बढ़े तो रानी कर्णावती ने रास्ते को दोनों तरफ से बंद करने के आदेश दे दिए। मुगल सेना ऐसी स्थिति आ गयी कि उनके सैनिक यहां से न तो ऊपर जा सकते थे और न ही नीचे। गंगा के किनारे और पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ मुगल सैनिकों के पास खाने की सामग्री समाप्त होने लगी। उनके लिये रसद भेजने के सभी रास्ते भी बंद थे।



मुगल सेना कमजोर पड़ने लगी और ऐसे में सेनापति ने गढ़वाल के राजा के पास संधि का संदेश भेजा लेकिन उसे ठुकरा दिया गया। मुगल सेना की स्थिति बदतर हो गयी थी। रानी चाहती तो उसके सभी सैनिकों को खत्म कर देती लेकिन उन्होंने मुगलों को सजा देने का नायाब तरीका निकाला। रानी ने संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को जीवनदान दे सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। सैनिकों को भी लगा कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो रहेगी। मुगल सैनिकों के हथियार छीन दिये गये और आखिर में उनके एक एक करके नाक काट दिये गये। कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक काटी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था। वह इससे काफी शर्मसार था और उसने मैदानों की तरफ लौटते समय अपनी जान दे दी थी। रानी इस प्रकार की शर्त से मुगलों को एक संदेश देना चाहती थीं कि आज के बाद गढ़वाल की ओर देखना भी मत।



शाहजहां ने बाद में अरीज खान को गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया था। बाद में शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की थी।





मुगलों और रानी कर्णावती के बीच संघर्ष:


रानी कर्णावती के हाथों शर्मसार और बेइज्जत होने का मुगलों को इस प्रकार धक्का लगा कि उन्होंने इस अपमान का बदला लेने के लिए 19 बरस तक प्रतीक्षा की। यही वजह है मुगलों ने खली तुल्ला के नेतृत्व में गढ़वाल पर आक्रमण करने को वर्ष 1655 में पुनः सेना भेजी। मगर इस बार स्थिति कुछ और थी। मुगलों ने इस बार अपनी सेना की सहायता के लिए सिरमौर और कुमाऊँ के शासकों से भी मदद माँगी। मुगलों के साथ सिरमौर के शासक मानधाता प्रकाश तथा कुमाऊं का शासक बाज बहादुर चंद कि तीनों सेनाओं ने जब पुनः गढ़वाल पर आक्रमण किया। ओरिएंटल सीरीज के अनुसार गढ़वाल के हारने के बाद भी श्रीनगर राजधानी अविजित रही। इस भीषण युद्धों के बाद भी मुगलों ने बस दूनघाटी को जीता तथा कुछ दुर्गों पर भी आधिपत्य किया।


महारानी कर्णावती ने करणपुर (वर्तमान देहरादून का एक क्षेत्र) गाँव बसाया था। इसके अतिरिक्त  दून क्षेत्र की नहरों के निर्माण का श्रेय भी कर्णावती को ही दिया जा सकता है, उन्होंने ही राजपुर नहर का निर्माण करवाया था जो रिपसना नदी से शुरू होती है और देहरादून शहर तक पानी पहुँचाती हैहालाँकि अब इसमें कई बदलाव और विकास कार्य हो चुके हैं, लेकिन दून घाटी तथा कुमाऊँ-गढ़वाल के इलाके में "नाक काटी रानी" अर्थात महारानी कर्णावती का योगदान अमिट है



"मेरे मामले में अपनी नाक मत घुसेड़ो, वर्ना कट जाएगी", वाली कहावत को उन्होंने अक्षरशः पालन करके दिखाया और इस समूचे पहाड़ी इलाके को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाकर रखा


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