तिलाड़ी कांड: 93 साल पहले गोलियों से भून दिए गए थे हक हकूक मांगने वाले, 100 से ज्यादा हुए थे शहीद।
प्राचीन समय से आज तक उत्तराखंड वासियों को अपने हक़ अपने अधिकारों और सुविधाओं को लेने के लिए हमेशा संघर्ष करना पड़ा है। उत्तराखंड का इतिहास अनेकों आंदोलनों से भरा पड़ा है। अपने हक़ हकूक की लड़ाई में अनेक उत्तराखंडी भाई बहिनो ने अपना जीवन न्योछावर किया है। अपने हको के लिए हुए अनेक आंदोलनों में से एक चर्चित आंदोलन, तिलाड़ी आंदोलन या तिलाड़ी कांड अपने हक़ की मांग करते लोगो पर अत्यचार का एक काला अध्याय है।
आप सभी ने अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को अंग्रेज अधिकारी जनरल डायर के क्रूर सैनिकों के सबसे घिनौने कुकृत्य "जलियाँवाला बाग हत्याकांड" के बारे में तो सुना ही होगा। कि कैसे अमृतसर के जलियांवाला बाग में जब भीड़ शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठी हुई थी, तो ब्रिटिश सरकार ने उस पर गोली चलवा दी थी। जिसमें अनेक निर्दोष और निहत्थे लोग मारे गए थे। अंग्रेजों की गोली से बचने के लिए अनेक लोग उसी बाग में मौजूद एक कुएँ में कूद गए थे। इसके कारण भी अनेक लोग इस कुख्यात घटना के दौरान मारे गए थे। यह घटना भारतीय इतिहास में ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’ के नाम से जानी जाती है।
लेकिन क्या आपने उत्तराखंड के जलियाँवाला बाग के बारे में सुना है जिसे रवाई कांड/तिलाड़ी कांड के नाम से जाना जाता है।
उत्तराखंड में जंगलों से जुड़े अपने हक हकूकों की रक्षा के लिए 93 साल पहले एक आंदोलन हुआ था, लेकिन उस आंदोलन के दमन को याद कर आज भी सिहरन पैदा हो जाती है। 30 मई 1930 को टिहरी रियासत के अधिकारियों ने तिलाड़ी के मैदान में अपने हक-हकूकों को लेकर पंचायत कर रहे सैकड़ों ग्रामीणों को गोलियों से भून डाला था। तिलाड़ी कांड को रवाईं ढंडक और गढ़वाल का जलियांवाला बाग कांड के नाम से भी जाना जाता है।
तिलाड़ी कांड का इतिहास:
ब्रिटिश शासन काल के समय अंग्रेजी हुकूमत ने वन संपदा के दोहन के अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे। इसी क्रम में टिहरी रियासत ने वर्ष 1885 में वन बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू की थी। वर्ष 1927 में रवाईं घाटी में भी वन बंदोबस्त लागू किया गया। इसमें ग्रामीणों के जंगलों से जुड़े हकहकूक समाप्त कर दिए गए थे। वन संपदा के प्रयोग पर टैक्स लगाया गया और पारंपरिक त्योहारों पर रोक लगा दी गई। एक गाय, एक भैंस और एक जोड़ी बैल से अधिक मवेशी रखने पर प्रति पशु एक रुपये वार्षिक टैक्स लगाया गया, इससे स्थानीय लोगों में रोष बढ़ने लगा था।
राजा ने जंगलों की सीमा विस्तार का कार्य शुरु करवाकर किसानों के गाय व पशु चराने के स्थल भी छीन लिए। दुखी किसानों की समस्या का जंगलात के अधिकारियों ने समाधान करने से इंकार कर दिया तथा कहा कि गाय बछियों के लिए सरकार किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं उठाएगी, तुम इन्हें पहाड़ी से नीचे गिरा दो।
अपनी समस्याओं को लगातार पत्र और सभाओं के माध्यम से दरबार को बताने के प्रयासों के बाद भी अहंकारी दीवान चक्रधर जुयाल और महत्वाकांक्षाओं से भरे डीएफओ पदमदत्त रतूडी, रंवाई और जौनपुर के जन आक्रोश और जन भावनाओं की अनदेखी कर रहे थे। नवंबर 1929 को पदम दत्त रतूड़ी ने कृषि और पशुपालक समाज में 12 नए करों का एलान किया. इससे 16 पट्टी रवाई घाटी तथा 9 पट्टी जौनपुर घाटी तथा बिष्ट पट्टी परगना उदयपुर के लोग, जो पूरी तरह कृषि और पशुपालक समाज थे, प्रभावित हुए। उनकी न केवल कृषि बल्कि उनके समाज और संस्कृति (मौण, मदिरा, नृत्य, मिलन व चूल पर कर) पर भी रियासत ने इन करों के बहाने हमला किया।
इससे जनता में आक्रोश फ़ैल गया। इस आक्रोश को चिंगारी दी एक और अमानवीय घटना ने। टिहरी के राजा नरेन्द्रशाह की राजधानी में अंग्रेज गवर्नर हेली अस्पताल की नीव रखने आये। इस आयोजन में समस्त राज्य और बाहर से भी कई लोग आये थे। राजा नरेन्द्रशाह के राजदरबार की तरफ से, गवर्नर हेली के मनोरंजन के लिए गरीब लोगो को नंगा होकर तालाब में कूदने को कहा गया। इस कारण जनमानस के मन में विद्रोह की आग जलने लगी। आख़िरकार अपने हक़ हकूकों की रक्षा के लिए जनता आगे बढ़ी, और उन्होंने रवाई पंचायत की स्थापना की।
इसको लेकर जनता के बीच अंग्रेजी हुकूमत व उसकी दलाल राजशाही के खिलाफ रोष और भी बढ़ गया। जनता ने संगठित होकर अपनी आजाद पंचायत का गठन किया। कन्सेरु गांव के दयाराम, नगाण गांव के भून सिंह व हीरा सिंह, बड़कोट के लुदर सिंह व जमन सिंह व दलपति, भन्साड़ी के दलेबु, चक्रगांव के धूम सिंह, खरादी के रामप्रसाद, खुमन्डी गांव के रामप्रसाद नौटियाल आदि के नेतृत्व में क्षेत्र की जनता संगठित होने लगी।
मार्च 1930 में टिहरी के तत्कालीन राजा नरेंद्र शाह स्वास्थ्य लाभ के लिए यूरोप गए तो रियासत के अधिकारी निरंकुश हो गए थे। सत्ता काउंसिल के हाथों में थी. जिसके मुखिया दीवान चक्रधर जुयाल और हरि कृष्ण रतूड़ी थे।चक्रधर जुयाल हमेशा टिहरी राजशाही में अपना दबदबा बढ़ाने के लिए, नई नई षड्यंत्रकारी गतिविधिया करते रहते थे। कहते है राजा नरेंद्र शाह देश विदेश घूमने के शौकीन थे। उन्होंने जनता के लाभ के लिए कई योजनाए बनाई लेकिन वे यथार्थ के पटल पर नहीं उतर पायी। उसका मुख्य कारण था राजा के लापरवाह और बेलगाम नौकरशाह। राजा अपनी शौक पूरी करने देश विदेश की यात्राओं पर रहते थे। उनका राजकाज अधिक समय लापरवाह और बेलगाम नौकरशाहों के हाथ में रहता था। जिस कारण जनता को शाशन का उचित लाभ नहीं मिल पता था। तिलाड़ी कांड का सबसे मुख्य कारण था, बेलगाम नौकरशाह और उनके द्वारा राजा और जनता के बीच के संवाद को ख़त्म कर दिया था। अर्थात जनता की बात राजा तक नहीं पहुंचने देते थे।
इधर जनता का संघर्ष जारी था। जनाक्रोश को दबाने के लिए 20 मई 1930 को डिप्टी कलेक्टर सुरेंद्र दत्त नौटियाल एवं डीएफओ पदमदत्त रतूड़ी ने पंचायत के कुछ सदस्यों को बात करने के लिए बुलाकर चार ग्रामीण नेताओं दयाराम, रुद्र सिंह, रामप्रसाद व जमन सिंह को गिरफ्तार कर टिहरी जेल भेज दिया।
अपने नेताओं की गिरफ्तारी की खबर सुनकर जनता का आक्रोशित होना स्वभाविक था। बड़ी संख्या में लोग अपने गिरफ्तार नेताओं के पास पहंच गये तथा गिरफ्तारी का विरोध करना शुरु कर दिया। इससे आग बबूला डीएफओ पदम दत्त रतूड़ी ने जनता पर फायरिंग कर दी जिसमें दो किसान अजितू तथा झून सिंह ग्राम नगांण गांव शहीद हो गये और डी.एफ.ओ मौके से भाग खड़ा हुआ।
इस घटना ने जनता के बीच आग में घी का काम किया। जनता को यह भरोसा हो गया कि टिहरी रियासत में उनकी कोई इज्जत नहीं है। उनके साथ जानवरों की तरह वर्ताव किया जा रहा है। गौण के गांव विद्रोह के लिए उठ खड़े हुए और बड़े विद्रोह की तैयारी शुरू हो गई।
आक्रोशित लोगों ने एकत्र होकर शहीद किसानों की लाशों के साथ टिहरी रियासत का राजमहल घेर लिया। जनता के आक्रोश के आगे पुलिस ने गिरफ्तार किये चारों किसान नेताओं को रिहा कर दिया।
इधर दरबार में अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए चक्रधर जुयाल लगातार चालबाजी कर रहे थे। राजा की अनुपस्थिति का फायदा उठा कर चक्रधर जुयाल, DFO पद्म दत्त रतूड़ी के साथ मिलकर नैनीताल गए वहां अंग्रेज एजेंट को रवाई की जनता के विरुद्ध मनगढंत कहानियाँ सुना कर, जनांदोलन के दमन के लिए मौन सहमति लेकर आ गए।
26 मई को ही दीवान चक्रधर और डीएफओ पदम दत्त नैनीताल से नरेंद्र नगर पहुंचे थे। उसी अपराहन सेना के साथ रंवाई के लिए कूच कर दिया, भल्डियाणा नामक स्थान पर दीवान ने फौज की जांच की तो आगम सिंह बखरेटी, जीत सिंह, मालचंद, सीताराम नगाण गांव, झूम सिंह सैपाल सिंह लखीराम निवासी काली बाजरी कुल 7 सिपाही रंवाई क्षेत्र के पाए गए जिन्हें वापस भेज दिया गया।
28 मई को दीवान चक्रधर फौज के साथ राजगढ़ी पहुंच गए। आंदोलनकारी उस समय टाटाव गावं में पंचायत कर रहे थे। आंदोलनकारियों (ढंडकियों ) ने उसी दिन वह गांव छोड़ दिया और तिलाड़ी सेरा में एकत्रित होने लगे। मगर रणजोर सिंह नामक व्यक्ति ने इस अफरातफरी का फायदा उठाकर आंदोलनकारियों के महत्वपूर्ण दस्तवेज और जानकारियां दीवान तक पंहुचा दी। उसने बताया कि ढंडकियों के पास खुकरी, तलवार, डांगरे हैं. भूतपुर्व दीवान सदानंद पत्रकार विशंभर दत्त चंदोला का भी समर्थन ढंडकियों को प्राप्त है।
चक्रधर ने आंदोलन ख़त्म करने के लिए सन्देश भेजे, महाराज का यूरोप प्रवास का हवाला भी दिया लेकिन आंदोलनकारी नहीं माने। आंदोलनकारियों की पहली शर्त थी कि रवाई घाटी से सेना की वापसी। फिर चक्रधर ने नई चाल खेली। आंदोलनकारियों को यह संदेश भिजवाया कि, वे उन अपराधियों को पकड़ना चाहते हैं, जिन्होंने सरकारी सम्पति का नुकसान किया है। और 29 मई की शाम तक अगर तिलाड़ी मैदान में इकठ्ठा हुए लोग नहीं हटते तो सैनिक कार्यवाही की जाएगी।
अत्याचारों से तंग होकर आंदोलन की आगामी रणनीति बनाने हेतु 30 मई 1930 को तिलाड़ी के मैदान में एक सभा का आयोजन किया गया।
30 मई की सुबह फिर चपरासी भेज कर संदेश दिया लेकिन आंदोलनकारियों की संख्या और हौसला लगातार बढ़ता गया। तिलाड़ी के मैदान से लोग नहीं हटे। अंग्रेजी हुकूमत व राजशाही ने आंदोलन के बर्बर दमन की तैयारी कर ली। राजा के सैनिकों ने सुबह से ही सभा स्थल को तीन तरफ से घेर लिया।
दिन को 2:00 बजे बहुत प्रभावी सैनिक कार्रवाई की गई. पहाड़ की चोटी पर सेनाध्यक्ष नत्थू सिंह ने पोजीशन ली। उत्तर पूरब की तरफ से ग्राम छटांगा से ग्राम किसना तक तिलाड़ी सेरा को सेना ने घेर लिया था।
राजा के दीवान चक्रधर जुयाल ने निहत्थे लोगों पर फायरिंग का आदेश दिया। सैनिकों ने मैदान को घेरकर 3 तरफ से गोलियां बरसानी शुरु कर दीं जिसमें सैकडों लोग मारे गये। भयभीत दर्जनों ग्रामीण जान बचाने के लिए यमुना की तेज धारा में कूद गये, कुछ ने किन्सेरु के पेड़ों में आड़ ली तो वही चिपक गए, कहते है कि सैनिको ने पेड़ में छुपे लोगो को भी चुन-चुन कर मारा। इस दिन यमुना का जल शहीेदों के रक्त से लाल हो गया।
नदी के पार ग्राम सुनाल्डी में चर रहे गाय बकरियां, तथा ग्रामीण भी इस गोलीबारी से घायल हुए। इस बीच चक्र गांव के धूम सिंह चक्रधर जुयाल के नजदीक पहुंच गए और उसके माथे पर बंदूक रख दी लेकिन खुद का अंगूठा गवा बैठे।
राजा की फौज ने दमन चक्र को आगे बढ़ाते हुए क्षेत्र में घर-घर जाकर तलाशी अभियान शुरु कर दिया।
फौज नरसंहार करते हुये राजतर की ओर बढ़ रही थी। रास्ते में भागते हुये दो जवानों की दीवान ने स्वयं अपने हाथों से गोली मार कर घायल कर दिया। राजतर पहुंचने पर फौज की एक टुकड़ी लाशें गबन करने के लिये वापस लौटी। धरती पर पड़ी लाशों पर सोने के कुण्डल चमक रहे थे। सिपाही लूट पर उतारू हो गये, कान काट-काट कर कुण्डल लूटे गये। लाशों को बोरे में भरकर यमुना नदी में डूबो दिया गया। अगले दिन फौज को गांव-गांव जाकर बागियों को ढूंढ़ने को हुक्म हुआ। थोकदार रणजोर सिंह तथा लाखीराम जिसे कहते उसे गिरफ्तार कर लिया जाता। घर-घर में तलाशियां हुई जो मन में आया लूट-खसोट की गई। लूट का माल बांट कर बागियों को कैद कर फौज टिहरी को रवाना हुई।
सभा में शामिल जिन्दा बचे लोगों में से 68 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। अभियुक्तों को बाहर से वकील लाकर पैरवी करने की अनुमति तक नहीं दी गयी। सभी अभियुक्तों को एक वर्ष से लेकर आजीवन कारावास की सजाएं सुनाई गयीं। आंदोलनकारियों पर जेल में भी अत्याचार जारी रहे जिस कारण सजा काटने के दौरान 15 लोगों की जेल में ही मृत्यु हो गयी।
दीवान चक्रधर इस घटना के कूटनीतिक प्रभाव को जानता था। इसीलिए घटना पोलिटिकल एजेंट स्टाइफ की जानकारी में भी थी। इसलिए घटना के साथ ही उसने इसकी गंभीरता को कम करने के लिए गलत रिपोर्ट पेश की मौके से शवों पर कालिख पोत यमुना नदी में प्रवाहित किया। मात्र 20 राउंड गोली चलाने की बात कही जबकि चश्मदीद गवाह एक घंटे से अधिक लगातार गोलीबारी का जिक्र करते हैं।
घटना से सीधे तौर पर जुड़े रहे गढ़वाली के संपादक विशंभर दत्त चंदोला इस घटना में एक सौ से अधिक निर्दोष ग्रामीणों के मारे जाने और 194 व्यक्तियों की गिरफ्तारी की रिपोर्ट करते हैं। सरकारी रिपोर्ट मात्र 2 कहीं 4 व्यक्तियों के मारे जाने की बात करती है जबकि कई स्थानीय ग्रामीण सतानंद ग्राम भाटिया सते सिंह बड़थ्वाल ग्राम बगासू जो कि इस संघर्ष में शामिल थे मृतकों की संख्या 67 बताते हैं।
जून प्रथम सप्ताह तक पूरे क्षेत्र में दमन और लूट का सरकारी क्रम चलता रहा। थोकदार रणजोर सिंह और लखीराम राम की भूमिका खलनायक की रही। वह ग्रामीणों को गिरफ्तार करवाते रहे 298 व्यक्तियों की गिरफ्तारी का उल्लेख मिलता है. लेकिन इस गोलीकांड के बाद भी ग्रामीणों का हौसला पस्त नहीं हुआ। चंदा डोकरी, थाबला अडूर-बडासू में हजार से अधिक की संख्या में लोग आजाद पंचायत में जुटते रहे। इस कांड की गूंज पूरे उत्तर भारत में हुई।
7 जुलाई 1930 को महाराजा यूरोप से लौटे और 9 जुलाई को पोलिटिकल एजेंट स्टाइफ से नैनीताल में बात की। पोलिटिकल एजेंट के समक्ष चक्रधर जुयाल पहले ही मजबूती से अपना पक्ष रख चुके थे। इस कारण चक्रधर जुयाल महाराज के विश्वास पात्र बने रहे। 24 जुलाई से 26 जुलाई 1930 तक रवांई जौनपुर क्षेत्र का नरेंद्र साह ने भ्रमण किया, तब भी चक्रधर जुयाल साथ बना रहा तांकि सच्चाई सामने न आए। धीरे-धीरे नरेंद्र शाह सच्चाई समझ गए, उन्होंने डीएफओ पदम दत्त द्वारा लगाए गए अधिकांश करों को वापस ले लिया। राज प्रतिष्ठा बचाए रखने की खातिर गिरफ्तार सभी ढंडकियों को 3 माह 10 दिन तक अनिवार्य रूप से जेल में रखा। उसके बाद 70 ढंडकियों को 4 माह से 10 वर्ष तक अलग-अलग श्रेणी की सजा से दंडित किया गया।
जेल में हुए शहीद:
- लुद्र सिंह, बड़कोट
- गुलाब सिंह, बड़कोट
- शेरजंग, बड़कोट
- गुन्दरन, ढ़काड़ा
- चैतू, बणगांव
- बद्रीदत्त, गडोली
- मीनू, द्वारगढ़
- नागचन्द, द्वारगढ़
- मदन सिंह, द्वारगढ़
- दिला, बाढ़ी
- जीतू, पालर
- ज्वाला, पालर
- हरक सिंह, खनेड़ा
- मोल्या
- उदयराम, बणगांव
आंदोलन के प्रमुख नेता:
- दयाराम, कन्सेरू
- दलपती, बड़कोट
- दीला, बाड़िया
- हीरा सिंह, नगांण गांव
- कमल सिंह, डख्याटगांव
- जमन सिंह, कन्सेरू
- राम प्रसाद, राजतर
- रुद्र सिंह, बड़कोट
- धूम सिंह, चक्रगांव
तिलाड़ी मैदान में शहीद:
- तुलसी, ग्राम कण्डारी
- किस्या, काण्डी - खनारी
- मोरसिंह, बडोर्गा
- तीन व्यक्ति, ग्राम कामदा
- हंसरन, क्वाड़ी
- हीरा, बढ़ली
- गौर सिंह, बढ़ली दसगी
अंग्रेजों की नजर में रियासत की साख बचाने के लिए और इस कांड में गौ हत्या के आरोप से मुक्त होने के लिए पंजाब सनातन धर्म के प्रतिनिधि पंडित गणेश दत्त शास्त्री, पंडित शिवानंद थपलियाल अवकाश प्राप्त प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में एक जांच आयोग गठित किया गया। जांच आयोग ने सभी संबद्ध पक्षों के बयान दर्ज किए, माना यह जाता है कि इसकी रिपोर्ट चक्रधर जुयाल और रियासत के खिलाफ थी। इस कारण यह रिपोर्ट दबा दी गई।
मुकदमा दायर करने के लिये चक्रधर ने अघोरनाथ मुखर्जी की शरण ली। प्रारम्भ में दण्ड संग्रह विधान की धारा 125, 400 और 412 के मातहत मुकदमे चले। अभियुक्तों को बाहर से वकील लाने की आज्ञा न मिली। उन्होंने स्वयं पैरवी की। मुकदमे साबित न हुये तथा जिरह के समय पद्मदत्त रतूड़ी मूर्छा खाकर गिर पड़ा। आठ महीने तक मुकदमा चला। जुलाई 1931 तक सभी अभियुक्तों को बीस वर्ष तक की सजायें सुनवाई गई। खुशी-खुशी से वे टिहरी जेल चले गये। हाथों पर चढ़ी हथकड़ियां तथा पैरों पर जकड़ी बेड़ियों के बावजूद भी वे विनोद के लिये गा उठे थे।
इस घटना से पूर्व ही विशंभर दत्त चंदोला संपादक गढ़वाली तथा शिमला, देहरादून के कई अखबार रंवाई घाटी पर नजर रखे हुए थे।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना जिसे की उत्तराखंड का जालियांवाला बाग कांड कहा गया में हर जुर्म के बाद शासन सत्ता द्वारा जो हथकंडे अख्तियार किए जाते हैं। साथ ही रंवाई घाटी से बाहर देहरादून, शिमला यहां तक कि दिल्ली के अखबारों में भी इस घटना को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। जिससे टिहरी रियासत की साख को धक्का लगा।
इसके साथ ही दबाव बनाने के लिए दीवान चक्रधर जुयाल द्वारा गढ़वाली के संपादक विशंभर दत्त चंदोला तथा इंडियन स्टेट रिफॉर्म्स के संपादक अनंत नारायण पर मानहानि का मुकदमा चलाया। जिसमें विशंभर दत्त चंदोला और अनंत नारायण राम दोनों को एक वर्ष की सजा हुई। रियासत के विरुद्ध भड़काऊ भाषण दिए जाने के लिए अधिवक्ता तारा दत्त गैरोला पर भी मानहानि का मुकदमा चलाया गया। लेकिन यह मुकदमा असफल हुआ दीवान चक्रधर जुयाल के उपर मुकदमे के खर्च की भरपाई करने के आदेश तारा दत्त गैरोला के पक्ष में किए गए। तमाम कोशिशों और बढ़ते जन दबाव के बाद के बाद 1 जुलाई 1939 को चक्रधर जुयाल को पद से हटाया गया।साथ ही उसका देश निकाल कर कालसी से ऊपर राज्य प्रवेश की अनुमति भी प्रतिबंधित कर दी गई थी। यहां सच्चाई जानने के बाद राजा द्वारा चक्रधर जुयाल की आंखें निकाल देने का उल्लेख होता है। लेकिन उसके कोई प्रमाण नहीं मिलते।




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